जानकारी
4 जैन धर्म में मुनि-आर्यिका को बड़े सम्मानीय और पूजनीय मानते हैं। उन्हें एक स्थान से दूसरे गंतव्य तक जाने के लिए एक मात्र साधन है, पैदल यात्रा यानी "पद यात्रा विहार"। पूरे विश्व में एकमात्र दिगम्बर मुनि ही है जो पैदल विहार चलने के लिए जाने जाते हैं।
जब हम अपने रिश्तेदार (माता, पिता, भाई, बहन इत्यादि) कोई बाहर जाते हैं, तब हम उनके आने-जाने व पहुंचने की खबर लेते हैं। इसी तरह मुनि-आर्यिकाओं (चतुर्विध संघ) के विहार की पूर्ण जिम्मेदारी लेना श्रावक एवं श्राविकाओं का कर्तव्य बनता है, इसलिए वे विहार की जिम्मेदारी लेवें।
उनके विहार मार्ग में आने जाने वाले बेकाबू वाहनों से, दुष्ट व्यक्तियों से सुरक्षा करना, आहार की निर्दोष सेवा देना और उनके प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखना, हमारा दायित्व बनता है।
एक साल में 4 माह का चतुर्मास होता है, बाकी 8 महीने संतों का विहार रहता है। जैन समाज को संतों के विहार की कमान पहले राजा-महाराजा सम्भाल
के संतों के बिहार की कमान पहले राजा-महाराजा संभालते थे, आज क्या स्थिति है ? वर्तमान में जैन समाज में करीब 1500 मुनि आर्यिका हैं, पर 500 कार्यकर्ता भी नहीं है। फिर कैसे बिहार सरक्षित व व्यवस्थित सम्भव होगा! सिर्फ सड़क नापना ही विहार नहीं, यदि व्यवस्थित ढंग से श्रावक समय का दान देकर साथ में पदयात्रा करते हैं तो उचित होगा। इससे एक और बड़ा फायदा होगा - श्रावक साथ में हो तो जन सामान्य को जैन संतों के ज्ञान, त्याग, और वैराग्यमय संयमी जीवन के बारे में बता सकते हैं। सामान्य जैनत्व लोगों को पता चलने से उनको भी जैन संतों के प्रति श्रद्धा व आस्था बढ़ेगी और वो नतमस्तक हो जायेंगे। विहार सहयोग से धर्म प्रभावना होगी और जैनत्व की छवि निखरेगी
निर्ग्रन्थ मुनियों का होना दुर्लभ है
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि आज के परिपेक्ष को देखते हुए जैन समाज सभी वर्गों में श्रेष्ठ है, जैसे- शिक्षा, संस्कृति, हॉस्पिटल, गौशाला, गुरुकुल, धर्मशाला, मंदिर इत्यादि। यह सब हमें गुरु कृपा से मिला है, जिसके माध्यम से आज जैन समाज की अपनी अलग ही पहचान है, अगर गुरु कृपा न होती तो जैन समाज इतना उच्च कोटि के शिखर पर नहीं होता। हमारे गुरुओं ने हमें इतना सब कुछ दिया परन्तु हमने अपने गुरुओं के लिए क्या किया ?
कलौ काले चले चित्ते, देह चन्यादि कीटके
एतद् चित् चमत्कार:, जिन रूप नरा धरा ।।
- (आ. सोमदेव सूरि, ग्रन्थ यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य)
अर्थ : इस कलिकाल में चित्त चलायमान है, देह अन्न का कीड़ा बन चुका है और ऐसे समय में भी दिगम्बर संत या दिगम्बरत्व देखने को मिलता है, तो यह एक आश्चर्य है।
आज के समय में भी कई प्रान्त ऐसे हैं जहां पर दिगम्बर मुनियों को विहार करने में बहुत कठिनाई आती है, साथ ही साथ विहार में आहार की व्यवस्था भी नहीं बन पाती है। चौके लगाने वाले भी नहीं मिलते हैं, कई गांव व शहर ऐसे हैं, जहां आज तक चातुर्मास भी नहीं हुए हैं। इन सबको देखते हुए, क्यों ना हम दिगम्बर मुनियों के आहार, विहार की व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाए। अगर प्रत्येक व्यक्ति तन-मन-धन से अपने गुरुओं के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निष्ठा से पालन करे तो, हम अपने सच्चे गुरुओं को सुरक्षित रख सकते हैं। इसलिए आज के समय में प्रत्येक गुरु भक्त को यह संकल्प लेना चाहिए कि हमें धर्म, समाज, संस्कृति और संस्कारों को सुरक्षित रखने के लिए दिगम्बर मुनियों की रक्षा करनी चाहिए।
दान धर्म न करने से क्या हानि होती है?
दाणु ण धम्मु ण चाग्गुण-भोगु ण बहिरप्प जो पानयगो सो।
लोह कसारिंग मुहे पडिओ मरियो न संशय।।
(गा. 12, आचार्य कु. कु. स्वाः, ग्रं. रायणसार)
अर्थ: जो श्रावक दान नहीं देता, धर्म का पालन नहीं करता, त्याग नहीं करता, न्यायपूर्वक भोग नहीं भोगता, वह बहिरात्मा पतंगा है, लोभ कषाय रूपी अग्नि के मुख में पड़ा मर जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
जैसा कि आप जानते हैं, भोगों की जो सामग्री हमें प्राप्त हुई है, वह सब हमें हमारे पुण्य से सभी मिली है, और हमारा पुण्य देव शास्त्र गुरु की भक्ति से उनकी सेवा करने से एवं उनके प्रति दान देने से बढ़ रही है। अगर हम दान-धर्म नहीं करते हैं तो हम भी एक दिन उस पतंगें की तरह लोभ कषाय रूपी अग्नि के मुख में गिर के मर जाएंगे। इसलिए संसार के प्रत्येक जीव को अपना मन, वचन, काय से धर्म करना चाहिए।
संसार के लोग ही ग्रहण करते हैं दान-धर्म करने से क्या लाभ होता है? इस विषय में अंशों ने लिखा है-
घणणणै समिद्धे सुहं जहां होइ सव्व जीवनं।
मुणि दाणै समिद्धे, सुहं तहा तं विणा दुक्खं ।।
(गा. 12, आचार्य कु. कु. स्वाः, ग्रं. रायणसार)
जिस प्रकार धन-धान्य आदि को समृद्धि से सब दिखाई को सुख होता है, उसी प्रकार मुनिदान आदि की समृद्धि से सब को सुख होता है। मुनि दान बिना दुख होता है। दिगम्बर मुनि उत्तम पात्र हैं इसलिए उनके प्रति दिए गए दान से हमें उत्तम सुख, उत्तम सामग्री एवं उत्तम फल की प्राप्ति होती है।
हमें अपना दान कहाँ-कहाँ देना चाहिए
बहुत से लोग जो सोचते हैं कि हमें भी दान देना चाहिए, परन्तु वे यह नहीं जानते कि दान कहाँ देना चाहिए, कुछ लोग चिड़िया, कबूतरों को दाना डालते हैं, कुछ मछलियों के लिए आटे की गोलियां बनाकर डालते हैं, कुछ लोग गाय के लिए चारा डालते हैं, कुछ लोग अनाथ आश्रम, रेलवे स्टेशन पर जाकर गरीबों के लिए चाय, नाश्ता, कम्बल इत्यादि दान देते हैं, लेकिन वहां दान देकर भी हमारी आत्मा तृप्त नहीं होती। इसीलिए हमारे आचार्यों ने लिखा है कि हमें दान कहाँ देना चाहिए।
जिनबिम्ब जीनागारं जिनिका उत्सवं।
जिनतीर्थ जीनागम जिनायतनानि सप्तथा।।
अर्थ: जिनबिम्ब, जिनमंदिर, जिनयात्रा, पंचकल्याणक महोत्सव, जिन तीर्थोद्वार, जिनागम, जिन आयतन, ये सात दान के योग्य क्षेत्र हैं।
आज के समय को देखते हुए बड़ी प्रसन्नता होती है कि प्रत्येक गांव, कस्बे नगरों में नवीन मंदिरों का निर्माण हो रहा है, सिद्धक्षेत्र अतिशय क्षेत्रों पर जिर्णोद्धार हो रहा है। नए व प्राचीन ग्रंथों की रचनाएं भी हो रही हैं, बड़े-बड़े अनुष्ठान इत्यादि के माध्यम से जिनशासन की महती प्रभावना हो रही है, किन्तु आज के समय में हमें अपने निर्ग्रन्थ मुनि (जिन आयतन) जो चलते फिरते तीर्थ हैं, उनके प्रति भी ध्यान देना होगा। हमें दान वहां देना चाहिए जहां पर हमारे दान की आवश्यकता हो। उदाहरण के रूप में आज से 2000 वर्ष पूर्व सम्राट खारवेल ने दिगम्बर साधुओं के लिए अनेक गुफाओं का निर्माण कराया था, जो आज भी उड़ीसा में हाथीगुफा के नाम से प्रसिद्ध है,
-(हाथीगुफा शिलालेख पंक्ति - 15)
निर्ग्रन्थ मुनियों के सिद्धक्षेत्र / अतिशय क्षेत्र की यात्रा की व्यवस्था में एवं सिद्धक्षेत्र अतिशय क्षेत्रों पर दिगम्बर मुनियों के चातुर्मास की व्यवस्था में हमें अपना दान देना चाहिए एवं उनकी सेवा कर हम अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हैं।
दिगम्बर मनियों के संदेश को जन जन तक पहुंचाना
ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्याण ।
मोह महा पद पियो अनादि, भूलो आपो भर मत वादी।।
-(पंडित- दौलतराम जी, छहडाला, भा. 1/3)
अर्थ : हे भव्यात्माओं ! आदि आप अपना कल्याण चाहते हो तो गुरुजनों की उस भला करने वाली शिक्षा को मन लगाकर सुनो। यह जीव अनादिकाल से मोहरूपी तेज शराब को पीकर अपने आत्म स्वरूप को भूल कर बिना प्रयोजन भ्रमण कर रहा है।
हमें यदि अपना कल्याण करना है तो हमें अपने गुरु की शिक्षा को मन लगाकर सुनना होगा और उसे अपने जीवन में ग्रहण भी करना होगा, तभी हम इस मोह की जंजीर को तोड़कर इस संसार को छोड़ सकते हैं। आज से लगभग 2 हजार वर्ष पूर्व हमारे पूर्वाचार्य समंतभद्र स्वामी, पूज्यपाद स्वामी, अकलंक स्वामी इत्यादि आचार्यों ने राजाओं की सभाओं में जाकर वाद-विवाद के माध्यम से जैन धर्म को विजय प्राप्त कराई एवं जैन धर्म को एक उच्च कोटि के शिखर पर स्थापित किया। यदि आज के समय में हो रहे भ्रष्टाचार, अत्याचार, हिंसा इत्यादि को रोकना है, देश और धर्म को सही दिशा में ले जाना है व प्रत्येक जीव का कल्याण करना है तो, हमें जन-जन को दिगम्बर मुनियों से जोड़ना होगा एवं दिगम्बर मुनियों के संदेश को जन-जन तक पहुंचाना होगा, तभी हम देश-धर्म व प्रत्येक जीव का कल्याण कर सकते हैं।